हाथ में लेकर के दीपक
चल परा मै जिस डगर
हर डगर की मंजिलो तक
आध्हिया मिटती गई……
शहन में आया अगर
कोई बशर यह सोच के
पनाह दी उस शख्स को
और तिस्नगी मिटती गई……
दौर है ये एक घरी का
मानव मात्र के लिए
दौर ये चलता रहा
और कहानिया बनती गई………..
रोक पाया है न कोई
अब तलक उस शख्स को
जिसने ठानी मंजिलो की
उन्हें मंजिल मिलती गई…….
हौसला जो रखकर पीछे
मुर  गए तो देख लो
हौसले मिटते गए और
biraanagi  आती गई………………॥
कैलाश खुलबे "वशिष्ठ"
पाठक ध्यान दे..... बिना अनुमति कही अन्यत्र उपयोग न करे
 
 
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