रविवार, 3 अगस्त 2008

तोड़ दे अगर आज हम नफरत की ये दिवार समझो की बतन का हर जिगर समंदर हो गया…………………

मरसियों पर नाचता है
आज ये बतन देखो
कल ही तो इस बतन में सेहरा पढ़ा गया …….

जिगर की ये आवाज
पहुची है उस फलक में
जिस फलक की तस्वीर को कल पानी मे देखा गया………..

जेहाद है ये सिर्फ एक
कौमी बतन की एकता
कल ही तो इस कॉम को गले मिलते देखा गया………….

मशहूर था जो शख्स कल
बतन में सुकून के लिए
आज वाही शख्स फिर क्यों काफिर हो गया……………..

मर मिटा था सरजमी पर
हर एक बच्चा कल यहाँ
आज तो हर बुजुर्ग भी इसका दुसमन हो गया…………..

दीपक कभी जला यहाँ
न्याय व् आपसी प्रेम का
बतन ये आज अन्याय का समंदर हो गया…………..

लाये थे जिसको बिच से
साहिल में छोरने
वाही शख्स आज भटक कर लहरों का हो गया…………


तोड़ दे अगर आज हम
नफरत की ये दिवार
समझो की बतन का हर जिगर समंदर हो गया…………………


कैलाश खुलबे "वशिष्ठ"

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