सोचो अगर हम आज भी होते गुलाम अंग्रेजो के, हर दिल दफ़न होते यहाँ बीके होते शरीर से [१५ अगस्त को सभी देशावासियोंं को बधाई व् देश भक्तो को श्रधांजलि ]
बदल गए तरप तरप के dil यहाँ हजार के
दे गए वो जान अपनी भारत माँ पुकार
के लुटी थी माँ बहिन की लाज सर लुटे सिंदूर के
पुत्रहीन हुए माँ बाप बच्चे अनाथ वीर के
कसम ली हर जवान ने कसम ली हर किशान
ने निचे नहीं झुकेंगे हम कसम ली हर इंसान ने
लुटे यहाँ घरबार भी लुटे यहाँ सुहाग भी
लुटी बहिन की लाज और लुटा यहाँ जहां भी
जिधर नजर घुमाई थी गावं घर बिरान थे
जिधर खरे थे देश भक्त उधर बने शमसान थे
नदिया बही थी खून की आंधी थी ये जूनून की
रोटी हुई ये भारत माँ लिपटी हुई थी खून स
ये अर्थी न थी शहीद की अर्थी थी ये जहान् की
ओरा कफ़न था देश ने अर्थी थी हिन्दुस्तान की
गुलाम थे अंग्रेज के कब्जा किये थे शान से
शहीद की अर्थी भी तब लौटी थी उस शमसान से
जला सके न हम उन्हें अर्थी थी जो शहीद की
दो गज जमीं भी न मिली हमको इस जहान् में
सोचो अगर हम आज भी होते गुलाम अंग्रेजो
हर दिल दफ़न होते यहाँ बीके होते शरीर से
भुला दो उस जज्बात को भुला दो उस सौगात को
दरार जिस दिवार में हटा दो उस दिवार को ....
कैलाश खुलबे "वशिष्ठ"
पाठको स अनुरोध है की यदि यह कविता किसी पाठ्यक्रम में शामिल की जा सकती है तो अपने सुझाव देने की कृपा करे....
शुक्रवार, 20 जनवरी 2017
ये अर्थी न थी शहीद की अर्थी थी ये जहान् की , ओरा कफ़न था देश ने अर्थी थी हिन्दुस्तान की , गुलाम थे अंग्रेज के कब्जा किये थे शान से , शहीद की अर्थी भी तब लौटी थी उस शमसान से , जला सके न हम उन्हें अर्थी थी जो शहीद की, दो गज जमीं भी न मिली हमको इस जहान् में, सोचो अगर हम आज भी होते गुलाम अंग्रेजो के, हर दिल दफ़न होते यहाँ बीके होते शरीर से, भुला दो उस जज्बात को भुला दो उस सौगात को, दरार जिस दिवार में हटा दो उस दिवार को ...., कैलाश खुलबे "वशिष्ठ"
ये अर्थी न थी शहीद की अर्थी थी ये जहान् की , ओरा कफ़न था देश ने अर्थी थी हिन्दुस्तान की , गुलाम थे अंग्रेज के कब्जा किये थे शान से , शहीद की अर्थी भी तब लौटी थी उस शमसान से , जला सके न हम उन्हें अर्थी थी जो शहीद की, दो गज जमीं भी न मिली हमको इस जहान् में, सोचो अगर हम आज भी होते गुलाम अंग्रेजो के, हर दिल दफ़न होते यहाँ बीके होते शरीर से, भुला दो उस जज्बात को भुला दो उस सौगात को, दरार जिस दिवार में हटा दो उस दिवार को ...., कैलाश खुलबे "वशिष्ठ"
सोचो अगर हम आज भी होते गुलाम अंग्रेजो के, हर दिल दफ़न होते यहाँ बीके होते शरीर से [१५ अगस्त को सभी देशावासियोंं को बधाई व् देश भक्तो को श्रधांजलि ]
बदल गए तरप तरप के dil यहाँ हजार के
दे गए वो जान अपनी भारत माँ पुकार
के लुटी थी माँ बहिन की लाज सर लुटे सिंदूर के
पुत्रहीन हुए माँ बाप बच्चे अनाथ वीर के
कसम ली हर जवान ने कसम ली हर किशान
ने निचे नहीं झुकेंगे हम कसम ली हर इंसान ने
लुटे यहाँ घरबार भी लुटे यहाँ सुहाग भी
लुटी बहिन की लाज और लुटा यहाँ जहां भी
जिधर नजर घुमाई थी गावं घर बिरान थे
जिधर खरे थे देश भक्त उधर बने शमसान थे
नदिया बही थी खून की आंधी थी ये जूनून की
रोटी हुई ये भारत माँ लिपटी हुई थी खून स
ये अर्थी न थी शहीद की अर्थी थी ये जहान् की
ओरा कफ़न था देश ने अर्थी थी हिन्दुस्तान की
गुलाम थे अंग्रेज के कब्जा किये थे शान से
शहीद की अर्थी भी तब लौटी थी उस शमसान से
जला सके न हम उन्हें अर्थी थी जो शहीद की
दो गज जमीं भी न मिली हमको इस जहान् में
सोचो अगर हम आज भी होते गुलाम अंग्रेजो
हर दिल दफ़न होते यहाँ बीके होते शरीर से
भुला दो उस जज्बात को भुला दो उस सौगात को
दरार जिस दिवार में हटा दो उस दिवार को ....
कैलाश खुलबे "वशिष्ठ"
पाठको स अनुरोध है की यदि यह कविता किसी पाठ्यक्रम में शामिल की जा सकती है तो अपने सुझाव देने की कृपा करे....
बदल गए तरप तरप के dil यहाँ हजार के
दे गए वो जान अपनी भारत माँ पुकार
के लुटी थी माँ बहिन की लाज सर लुटे सिंदूर के
पुत्रहीन हुए माँ बाप बच्चे अनाथ वीर के
कसम ली हर जवान ने कसम ली हर किशान
ने निचे नहीं झुकेंगे हम कसम ली हर इंसान ने
लुटे यहाँ घरबार भी लुटे यहाँ सुहाग भी
लुटी बहिन की लाज और लुटा यहाँ जहां भी
जिधर नजर घुमाई थी गावं घर बिरान थे
जिधर खरे थे देश भक्त उधर बने शमसान थे
नदिया बही थी खून की आंधी थी ये जूनून की
रोटी हुई ये भारत माँ लिपटी हुई थी खून स
ये अर्थी न थी शहीद की अर्थी थी ये जहान् की
ओरा कफ़न था देश ने अर्थी थी हिन्दुस्तान की
गुलाम थे अंग्रेज के कब्जा किये थे शान से
शहीद की अर्थी भी तब लौटी थी उस शमसान से
जला सके न हम उन्हें अर्थी थी जो शहीद की
दो गज जमीं भी न मिली हमको इस जहान् में
सोचो अगर हम आज भी होते गुलाम अंग्रेजो
हर दिल दफ़न होते यहाँ बीके होते शरीर से
भुला दो उस जज्बात को भुला दो उस सौगात को
दरार जिस दिवार में हटा दो उस दिवार को ....
कैलाश खुलबे "वशिष्ठ"
पाठको स अनुरोध है की यदि यह कविता किसी पाठ्यक्रम में शामिल की जा सकती है तो अपने सुझाव देने की कृपा करे....