शनिवार, 11 नवंबर 2017

MAN KI BAAT: डिस इस बेस्ट पालिसी तो स्टॉप माइग्रेशन एंड सेफ आवर...

MAN KI BAAT: डिस इस बेस्ट पालिसी तो स्टॉप माइग्रेशन एंड सेफ आवर...: KAILASH KHULBE [KK]   < khulbek@gmail.com > Aug 21 to  cm-ua ,  cm-uk ,  secy-cm-ua ,  secy-governer-. ,  pm...

MAN KI BAAT: पंचेश्वर बाँध का निर्णय भविस्य में आने वाली एक भयं...

MAN KI BAAT: पंचेश्वर बाँध का निर्णय भविस्य में आने वाली एक भयं...: पंचेश्वर बाँध का निर्णय भविस्य में आने वाली एक भयंकर सुनामी का संकेत है जो भूकंप आने पर आधे से भारत वर्ष कि बर्बादी का कारक बन सकता है ...

MAN KI BAAT: २५००० करोड़ की प्रति वर्ष १० सालो तक की सब्सिडी का ...

MAN KI BAAT: २५००० करोड़ की प्रति वर्ष १० सालो तक की सब्सिडी का ...: आप एक बानगी देखे इस सरकार की हमने एक सुझाव जो कि सामान्य रूप से राज्य के लोगो का अहित होता देख कोई भी व्यक्ति दे सकता है क्यों कि ये हम स...

MAN KI BAAT: २५००० करोड़ की प्रति वर्ष १० सालो तक की सब्सिडी का ...

MAN KI BAAT: २५००० करोड़ की प्रति वर्ष १० सालो तक की सब्सिडी का ...: आप एक बानगी देखे इस सरकार की हमने एक सुझाव जो कि सामान्य रूप से राज्य के लोगो का अहित होता देख कोई भी व्यक्ति दे सकता है क्यों कि ये हम स...

MAN KI BAAT: २५००० करोड़ की प्रति वर्ष १० सालो तक की सब्सिडी का ...

MAN KI BAAT: २५००० करोड़ की प्रति वर्ष १० सालो तक की सब्सिडी का ...: आप एक बानगी देखे इस सरकार की हमने एक सुझाव जो कि सामान्य रूप से राज्य के लोगो का अहित होता देख कोई भी व्यक्ति दे सकता है क्यों कि ये हम स...

शुक्रवार, 20 जनवरी 2017

ये अर्थी न थी शहीद की अर्थी थी ये जहान् की , ओरा कफ़न था देश ने अर्थी थी हिन्दुस्तान की , गुलाम थे अंग्रेज के कब्जा किये थे शान से , शहीद की अर्थी भी तब लौटी थी उस शमसान से , जला सके न हम उन्हें अर्थी थी जो शहीद की, दो गज जमीं भी न मिली हमको इस जहान् में, सोचो अगर हम आज भी होते गुलाम अंग्रेजो के, हर दिल दफ़न होते यहाँ बीके होते शरीर से, भुला दो उस जज्बात को भुला दो उस सौगात को, दरार जिस दिवार में हटा दो उस दिवार को ...., कैलाश खुलबे "वशिष्ठ"

सोचो अगर हम आज भी होते गुलाम अंग्रेजो के, हर दिल दफ़न होते यहाँ बीके होते शरीर से [१५ अगस्त को सभी देशावासियोंं को बधाई व् देश भक्तो को श्रधांजलि ]
बदल गए तरप तरप के dil यहाँ हजार के
दे गए वो जान अपनी भारत माँ पुकार

के लुटी थी माँ बहिन की लाज सर लुटे सिंदूर के
पुत्रहीन हुए माँ बाप बच्चे अनाथ वीर के


कसम ली हर जवान ने कसम ली हर किशान
ने निचे नहीं झुकेंगे हम कसम ली हर इंसान ने

लुटे यहाँ घरबार भी लुटे यहाँ सुहाग भी
लुटी बहिन की लाज और लुटा यहाँ जहां भी

जिधर नजर घुमाई थी गावं घर बिरान थे
जिधर खरे थे देश भक्त उधर बने शमसान थे

नदिया बही थी खून की आंधी थी ये जूनून की
रोटी हुई ये भारत माँ लिपटी हुई थी खून स

ये अर्थी न थी शहीद की अर्थी थी ये जहान् की
ओरा कफ़न था देश ने अर्थी थी हिन्दुस्तान की

गुलाम थे अंग्रेज के कब्जा किये थे शान से
शहीद की अर्थी भी तब लौटी थी उस शमसान से

जला सके न हम उन्हें अर्थी थी जो शहीद की
दो गज जमीं भी न मिली हमको इस जहान् में

सोचो अगर हम आज भी होते गुलाम अंग्रेजो
हर दिल दफ़न होते यहाँ बीके होते शरीर से

भुला दो उस जज्बात को भुला दो उस सौगात को
दरार जिस दिवार में हटा दो उस दिवार को ....

कैलाश खुलबे "वशिष्ठ"

पाठको स अनुरोध है की यदि यह कविता किसी पाठ्यक्रम में शामिल की जा सकती है तो अपने सुझाव देने की कृपा करे....

ये अर्थी न थी शहीद की अर्थी थी ये जहान् की , ओरा कफ़न था देश ने अर्थी थी हिन्दुस्तान की , गुलाम थे अंग्रेज के कब्जा किये थे शान से , शहीद की अर्थी भी तब लौटी थी उस शमसान से , जला सके न हम उन्हें अर्थी थी जो शहीद की, दो गज जमीं भी न मिली हमको इस जहान् में, सोचो अगर हम आज भी होते गुलाम अंग्रेजो के, हर दिल दफ़न होते यहाँ बीके होते शरीर से, भुला दो उस जज्बात को भुला दो उस सौगात को, दरार जिस दिवार में हटा दो उस दिवार को ...., कैलाश खुलबे "वशिष्ठ"

सोचो अगर हम आज भी होते गुलाम अंग्रेजो के, हर दिल दफ़न होते यहाँ बीके होते शरीर से [१५ अगस्त को सभी देशावासियोंं को बधाई व् देश भक्तो को श्रधांजलि ]
बदल गए तरप तरप के dil यहाँ हजार के
दे गए वो जान अपनी भारत माँ पुकार

के लुटी थी माँ बहिन की लाज सर लुटे सिंदूर के
पुत्रहीन हुए माँ बाप बच्चे अनाथ वीर के


कसम ली हर जवान ने कसम ली हर किशान
ने निचे नहीं झुकेंगे हम कसम ली हर इंसान ने

लुटे यहाँ घरबार भी लुटे यहाँ सुहाग भी
लुटी बहिन की लाज और लुटा यहाँ जहां भी

जिधर नजर घुमाई थी गावं घर बिरान थे
जिधर खरे थे देश भक्त उधर बने शमसान थे

नदिया बही थी खून की आंधी थी ये जूनून की
रोटी हुई ये भारत माँ लिपटी हुई थी खून स

ये अर्थी न थी शहीद की अर्थी थी ये जहान् की
ओरा कफ़न था देश ने अर्थी थी हिन्दुस्तान की

गुलाम थे अंग्रेज के कब्जा किये थे शान से
शहीद की अर्थी भी तब लौटी थी उस शमसान से

जला सके न हम उन्हें अर्थी थी जो शहीद की
दो गज जमीं भी न मिली हमको इस जहान् में

सोचो अगर हम आज भी होते गुलाम अंग्रेजो
हर दिल दफ़न होते यहाँ बीके होते शरीर से

भुला दो उस जज्बात को भुला दो उस सौगात को
दरार जिस दिवार में हटा दो उस दिवार को ....

कैलाश खुलबे "वशिष्ठ"

पाठको स अनुरोध है की यदि यह कविता किसी पाठ्यक्रम में शामिल की जा सकती है तो अपने सुझाव देने की कृपा करे....